समंदर को पार करने की ख्वाहिश में
उम्मीदों की एक किश्ती बनायीं थी
आत्मविश्वास के झोको ने धक्का भी लगाया था
दुआओं की लहरें भी सफ़र का सहारा बनी थी
डगमगाते हीं सही पर किस्ती बढ़ चली थी ।
किनारों का शोर और कोलाहल छूट चूका था
मन में उमंगो की तरंगे कई इन्द्रधनुष बना रहे थे
आशा की हल्की हल्की धुप में मौसम खुशनुमा था
क्षितिज को देख के लगता नहीं था मंजिल दूर होगी ।
सफ़र का वेग तेज़ था
छोटे छोटे टापुओ को देख हौसला अफजाई भी हुई थी
मगर समंदर का अपना ही अज़ीब शोर था, गरज़ना थी
हवाओ के झोको में नमी थी, गर्मी थी और अज़ीब सा गंध था
खुद से क्षितिज की दूरी कम होते न देख मन व्याकुल हो उठा ।
आत्मविश्वास के झोके धीमे पड़ने लगे हैं
दुआओं की लहरें थमी हुई सी लगने लगी है
ये कैसी अज़ीब सी उदासी है, पानी पर तैरते हुए बर्फ़ और
अति-आत्मविश्वास के तुफानो की चेतावनी तो दी थी लोगो ने
मगर इस उदासी के बारे में किसी ने नहीं बताया था ।
शायद विषुव-प्रशांत है ये, ये वक़्त भी गुज़र जायेगा
फिर से ख़ुशी के बयार बहेंगे , फिर से अच्छी धुप खिलेगी
फिर से इंद्रधनुषी सपने आयेंगे, फिर से लहरों में चंचलता आएगी
डगमगाते हीं सही पर किस्ती बढ़ चलेगी ।
- चंचल प्रकाशम्
What an inspiring poem.....:):)
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